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Friday, January 3, 2020

Fuedalism in India | Fuedalism in Hindi- Full Information

Fuedalism in India | Fuedalism in Hindi-  Full Information 



'सामंतवाद' मध्य कालीन भारत की एक विशेष व्यवस्था थी। इसका उत्थान कनिष्क के समय हुआ। उस समय 'सामंत' शब्द का प्रयोग कनिष्क के अधीन राजाओं के लिए किया जाता था। हर्षवर्धन के शासनकाल में सामंतों की संख्या में काफी वृद्धि हुई। राजपूत काल में सामंतवाद की व्यवस्था अपनी प्रगति के शिखर पर पहुँच गई थी।

सामंतवाद का अर्थ- 'सामंतवादी व्यवस्था' से अभिप्राय उस विस्तृत सामाजिक- राजनितिक व्यवस्था से है जो भूमि तथा उससे प्राप्त होने वाली आय के नियंत्रण तथा उसके उपयोग पर आधारित थी। 'सामंत' शब्द की उत्पत्ति लातानी शब्द 'फयूडम' से हुई है। सामंतवादी व्यवस्था के अन्तर्गत के बदले सेवाएँ प्राप्त की जाती थीं। राजा भूमि का स्वामी होता था। वह इसे आगे सामंतों में बाटँ  देता था। इसके बदले सामंत अपने स्वामी की सेवा करते थे।


सामंतवाद की मुख्य विशेषताएँ


सामंतवाद व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं।

1) सामंत- भूमि के स्वामि- सैद्धांतिक रूप में महाराजा समूची भूमि का स्वामि होता था। वह अपनी भूमि को जागीरों  के रूप में कुछ निश्चित शर्तों पर अपने अधीन सामंतों में बाटँ देता था। यदि कोई सामंत अनुदान की शर्तों का पालन करने मे असमर्थ होता था, तो राजा उसकी भूमि को जब्त कर सकता था। सामंत की मृत्यु के पश्चात यह राजा की इच्छा पर निर्भर करता था कि वह सामंत से सम्बंधित जागीर उसके परिवार के किसी अन्य सदस्य को दे अथवा न दे। किंतु व्यावहारिक रूप में सामंतों को प्राप्त भूमि पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती थी।

2) सामंतो के प्रकार- राजपूत काल में तीन प्रकार के सामंत होते थे। पहली प्रकार के सामंत राजा के उच्चाधिकारी होते थे जो राजकीय सेवा के बदले वेतन के रूप में भूमि प्राप्त करते थे। दूसरी प्रकार के सामंत भूतपूर्व शासक होते थे जो पराजित होने पर राजा की अधीनता स्वीकार कर लेते थे। राजा उन्हें अपना सामंत नियुक्त कर देता था। तीसरी प्रकार के सामंत ऐसे पुरोहित थे जिन्हें राजा लगान- मुक्ति भूमि दान के रूप में प्रदान करता था।

3) सामंतों के वर्ग - राजपूत काल में सामंतों के अनेक वर्ग थे। बड़े सामंतों को महासामंत, महासामंतधिपति, मंडलेश्वर तथा छोटे सामंतों को राजा, ठाकुर, भोकता तथा भोगिका आदि कहा जाता था। इन सामंतों के आगे उप-सामंत होते थे।

सामंतो के कर्त्तव्य-  सामंतों को अनेक कर्त्तव्य निभाने होते थे-
i)     वे अपने अधीन प्रदेश में महाराजा के आदेशों के पालन          का वचन देते थे।
ii)   वे अपने अधीन प्रदेशों में शांति- व्यवस्था स्थापित रखने         के लिए उत्तरदायी थे।
iii)  वे अपने अधीन प्रदेश से भू-राजस्व एकत्रित करके                 महाराजा को उसका निश्चित भाग भेजते थे।
iv)  ये युद्ध अथवा आंतरिक विद्रोह के समय अपने सैनिकों          को भेजकर महाराजा की सहायता करते थे।
v)  उन्हें विशेष अवसरों पर महाराजा के दरबार में उपस्थित          होना पड़ता तथा नजराना देना पड़ता था।
vi) वे अपने अधीन क्षेत्र में जन- कल्याण का कार्य भी करते        थे।

सामंतों के अधिकार-
  राजपूत काल के सामंतों को अनेक अधिकार भी प्राप्त थे-  i)     वे अपने अधीन क्षेत्र से भू-राजस्व एकत्रित करते थे।
ii)   वे अपने अधीन क्षेत्र के लोगों के दीवानी तथा फौजदारी         मुकदमों के निर्णय करते थे तथा अपराधियों से जुर्माना           वसूल करते थे।
iii)  वे आलीशान भवनों में रहते थे और बड़ी- बड़ी उपाधियाँ        भी धारण करते थे।
iv)  वे अपने अधीन कर्मचारियों की नियुक्त करते थे।
v)   वे व्यावहारिक रूप में अपने अधीन भूमि के स्वामी होते         थे।

सामंतों पर नियंत्रण- सामंत यद्यपि अपने अधीनस्थ प्रदेशों की शासन-व्यवस्था चलाने के लिए स्वतंत्र थे किंतु उन पर कुछ प्रतिबंध भी थे-
महाराजा समय-समय पर सामंतों की सेना का निरीक्षण करता था।
महाराजा के आदेशों का पालन न करने वाले सामंतों की भूमि को जब्त किया जा सकता था अथवा उन्हें कम किया जा सकता था।
सामंतों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित किया जा सकता था।

सामंतवाद के गुण

सामंतवादी व्यवस्था के तत्कालीन भारतीय समाज पर निम्नलिखित सकारात्मक प्रभाव पडे-

1) प्रशासन में सुविधा- इस व्यवस्था के अन्तर्गत सत्ता का विकेन्द्रीकरण किया गया था। सामंतों को अपने अंतर्गत प्रदेशों से लगान एकत्रित करने तथा प्रशासनिक अधिकार दिए गए थे। ये सामंत अपनी स्थानीय समस्याओं का अच्छे ढंग से समाधान कर सकते थे। इस कारण प्रशासनिक मामलों में महाराजा का भार कुछ कम हो गया।

2) सामंतों द्वारा सैन्य सहयोग - देश की आन्तरिक शांति तथा बाह्य आक्रमणों के समय और देश की सुरक्षा के समय सामंत राजा को यथा सम्भव अपने सैनिक के साथ सहयोग देते थे।शेख

3) क्षेत्रीय भाषाओं का विकास- सामंतवादी व्यवस्था के अन्तर्गत दक्षिण भारत के राज्यों में तमिल, तेलुगु, कन्नड आदि प्रादेशिक भाषाओं का विकास हुआ। पश्चिम भारत के राज्यों में मराठी व गुजराती का तथा उत्तरी भारत में बंगाली, आसामी, उडिया, भोजपुरी आदि भाषाओं का विकास हुआ।

4) भवन-निर्माण तथा चित्रकला का विकास-  अनेक सामंतों ने मंदिरों तथा मूर्तियों के निर्माण तथा चित्रकला के विकास में भी उल्लेखनीय योगदान दिया।

सामंतवाद के अवगुण- 

समूचे रूप में सामंती व्यवस्था के निम्नांकित विनाशकारी परिवार  (नकारात्मक प्रभाव) हुए ।

1) राज्य की वित्तीय स्थिति का दुर्बल होना- राज्य की आय का बड़ा भाग सामंतों के पास ही रह जाता था। महाराजा को सामंतों की ओर से एक निश्चित आय ही प्राप्त होती थी। इसलिए राजा अपनी सैनिक- शक्ति को सुदृढ़ करने अथवा जन- कल्याण के कार्यों की ओर विशेष ध्यान नहीं दे सके।

2) सामंतो में परस्पर संघर्ष-  महाराजा से अधिक- से-अधिक जागीर प्राप्त करने के लिए सामंतों में परस्पर संघर्ष चलता रहता था।

3) निजी हितों की वृद्धि में संलग्न रहना- सामंत अपनी शक्ती बढ़ाने तथा अवसर पाकर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने के प्रयास में लगें रहते थे।

4) किसानों की दुर्दशा-  सामंतों व्यवस्था के कारण किसानों की दशा बहुत दयनीय हो गई। उन्हें भूमि से बेदखल किया जा सकता था तथा नए कर लगाए जा सकते थे। सामंत उनसे विस्ति (बलात् श्रम) भी लेते थे। सामंत उन पर कई प्रकार के अत्याचार करते थे, किंतु किसान इस सम्बन्ध में महाराजा के समक्ष शिकायत नहीं कर सकते थे। इस कारण जहाँ महाराजा का अपनी प्रजा से सम्पर्क टूटा, वहीं कृषि के उत्पादन पर भी बुरा प्रभाव पड़ा।

6) समाज का धनी तथा निर्धन वर्गों में विभाजन- समाज धनी व निर्धन दो वर्गों में विभाजित हो गया। सामंती व्यवस्था के कारण देश कई जातियों में बँट गया। जाति प्रथा पहले से अधिक कठोर हो गई। समाज में अस्पृश्यता की बुराई बढ़ गई।

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